interview of Professor Rishabhdeo Sharma

Share Embed


Descrição do Produto

साक्षात्कार
विचारों का लोकतंत्र सबसे ज़रूरी है
(विजेंद्र प्रताप सिंह के द्वारा ऋषभदेव शर्मा का साक्षात्कार)
जीवन चक्र कब किसे कहाँ ले जाए और किससे मिलवा दे, कुछ कहा नहीं जा सकता। यूँ राह चलते
चलते भी कई बार चिरस्मरणीय किस्से हो जाते हैं जीवन में। किस्सा शब्द का प्रयोग मैं जानबूझ कर
रहा हँू क्योंकि प्रस्तुत साक्षात्कार भी किस्से जैसा ही है। इसे मैं कहानी की परिभाषा में नहीं
बिठा सकता और न ही अन्य साक्षात्कारों जैसा साक्षात्कार ही कह सकता हॅँ। मुद़दे पर आने से
पहले मैं इस साक्षात्कार के पीछे की कहानी का उल्लेख अवश्य करना चाहँूगा। वर्ष 2012 में मैं
अपनी छोटी बहन शशिबाला से मिलने के लिए हैदराबाद गया। वह केंद्रीय विद्यालय में शिक्षिका
हैं। बहनोई और बहन दोनों के अपने-अपने काम पर चले जाने के बाद मैं यूँ ही निरुद्देश्य घर से
निकला और हुसैनसागर पहँुच गया। काफी देर सुरम्य वातावरण का आनंद लेने के बाद मन हुआ कुछ दूर
टहलने का। मैं अनजाने ही हुसैनसागर से खैरताबाद की ओर चल पड़ा और फ्लाई ओवर पार करते हुए,
खैरताबाद रेलवे स्टेशन के पास जूस पीकर पैदल ही, बिना इस बात की परवाह किए कि मैं रास्ता
जानता ही नहीं हँू, आगे बढ़ता गया। तकरीबन 300-400 मीटर जाने के बाद मुझे दाईं ओर एक
बोर्ड दिखाई दिया - 'दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा' का। प्रकृत्तिः मैं एडवेंचर प्रिय हँू और
नये लोगों से मिलने की ललक को रोक नहीं पाता हँू। दोपहर के लगभग 3 बजे होंगे। मैं सभा के भवन
में प्रवेश कर गया। मुख्य द्वार के सम्मुख ही गाँधी जी की प्रतिमा दीखी। उसी प्रतिमा के निकट
स्वागत पटल पर एक व्यक्ति से पूछा, क्या अभी यहाँ किन्हीं प्रोफेसर वगैरह से मुलाकात हो सकती
है। उन महाशय ने बताया कि ''आज तो अवकाश है शायद ही कोई मिले। हाँ ..शर्मा सर आपको
मिल सकते हैं।'' मैंने मन ही मन सोचा, चलो कोई तो मिला। और बाई ओर की इमारत में सीढि़यां
चढ़ते हुए आखिर में पहँुचा तो वहाँ 'प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा' लिखा हुआ बोर्ड दिखाई दिया। जैसे
ही मैं उनके कक्ष के समक्ष पहुँचा, दरवाजा अपने आप खुल गया, जैसे कोई मेरी ही प्रतीक्षा कर
रहा हो। हालांकि यह स्वविनोद के लिए सोचा गए वाक्य से ज्यादा कुछ नहीं था। वस्तुतः शर्मा
सर घर जाने के लिए निकल रहे थे। मझोला कद, भरा हुआ शरीर और उस पर फ्रेंच कट। मैंने अपना
परिचय दिया तो वे पुनः भीतर की ओर गये और मुझे भी भीतर बुलाया। प्रथम परिचय के दौरान
एक चीज ने सोचने पर विवश कर दिया और वह चीज थी ऋषभदेव सर की उन्मुक्त हँसी। आज के जमाने
में कोई बिरला ही हँस पाता है और खुलकर हँसना तो जैसे गायब ही हो चुका है समाज से। ऐसे में
यह कैसे हँस रहे हैं मन ही मन सोचता रहाँ थोड़ी सी साहित्यिक बातें भी हुईं। इसी दौरान मुझे
'स्रवंति' पत्रिका के बारे में उनसे पता चला। इस बात का खयाल रखते हुए कि वे मेरी वजह से लेट
न हो जाएं, मैंने चलने के लिए विदा मांगी । उन्होंने चलते-चलते 'स्रवंति का एक अंक देते हुए
रचनाएं भेजने के लिए कहा और मैं उनके कक्ष से निकल आया। उनकी हँसी मेरे जहन में घूमती रही। और
इसी ने मुझे ऋषभदेव सर से दुबारा मिलने के लिए प्रवृत्त किया। धीरे-धीरे एकाधिक कारणों से मैं
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र के अन्य लोगों और विशेषतः शर्मा सर से जुड़ता
चला गया। विभिन्न मुलाकातों में, मैं जितना शर्मा सर को समझ पाया और उन्हें कार्य करते देख
पाया, उसी का सुपरिणाम है प्रस्तुत साक्षात्कार, जिसमें न तो मैंने उनसे औपचारिक रूप से प्रश्न
किए और न ही उन्होंने औपचारिक भाव से कोई उत्तर दिया। 
एक मौके पर जब मैं और ऋषभदेव शर्मा सर उनके घर जो कि रामंतापुर में स्थित है की ओर जा रहे
थे। साथ की प्रमुख वजह थी दोनों का एक ही मार्ग होना, क्योंकि मेरी बहन वहाँ से कुछ चार
किलोमीटर दूर उप्पल में रहती हैं। यूँ ही लेखन पर कुछ खयाल मन में आ रहे थे सो मैं बोल बैठा कि
सर लेखन आज लोगों के लिए पैशन नहीं रह गया। व्यावसायिकता सवार होने लगी है, लेखकों पर।
मेरे ऐसा सोचने के पीछे कारण था, मेरे द्वारा संपादित पुस्तक़त्रय ''वंचित संवेदना का साहित्य''
के लिए दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श पर लेखकों से आलेख एकत्रित करने के दौरान कुछ
प्रतिष्ठित लेखकों का नकारात्मक रवैया और आलेख के बदले में मांगा जाने वाला पारिश्रमिक। मैंने
सर से पूछा सर आपके लिए लेखन क्या मायने रखता है? 
वे प्रथमतः तो सपाट भाव से बोले- भई सोचा नहीं, कभी सोचा ही नहीं, दरअसल इसलिए भी
नहीं सोचा क्योंकि कभी लगा ही नहीं कि कोई मुझसे यह सवाल भी कर सकता है। क्योंकि मैं अपने
आपको लेखक या कवि मानता ही नहीं। फिर भी, अगर प्रश्न का उत्तर देना ही है तो एक मनुष्य
के नाते बहुत बार कुछ कहने की इच्छा होती है, यह आनंद भी हो सकता है, क्रोध भी हो सकता
है, यह खीज भी हो सकती है। यह अपने आप को साझा करना भी हो सकता है। यह अपने आप को
सामान्य रखने की तकनीक भी हो सकती है। कुल मिलाकर लेखन मेरे लिए जीवन का अंग है। जैसे
दूसरी सारी चीजें, दूसरे सारे क्रियाकलाप जीवन के अंग हैं वैसे ही लेखन भी मेरे जीवन का अंग है।
वह जीवन नहीं है, अंग है, आवश्यक। 
उनके इस प्रकार के वाक्यों ने मुझे और अधिक जानने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि जिस व्यक्ति के
सात कविता संग्रह प्रकाशित हों और कई सारी आलोचना पुस्तकें भी; वह अपने आप को साधारण
मान रहा है और सिर्फ एक या दो कविता कहीं प्रकाशित हो जाने पर ही लोग अपने विजिटिंग
कार्ड पर कवि, लेखक, आलोचक आदि लिखवा लेते हैं। मैंने कहा- लेखन आपके लिए प्राथमिकता है या
जीवन शैली ? अपने विनोदी स्वभाव के अनुकूल बोले- कोई तीसरी चीज भी हो सकता है। जिस क्षण
लिखने की मनःस्थिति हो, उस समय लिखना ही प्राथमिकता है। लिखना जब जीवन का अंग है तो
वह जीवन शैली का हिस्सा भी है। 
मैं स्वयं जब लिखता हँू कई बार श्रीमती जी पीछे से कुछ बोल कर चली जाती हैं और मुझसे बाद में
पूछती हैं कि फलाना काम कर दिया तो मैं सोच में पड़ जाता हँू कि मुझसे कब कहा था। वस्तुतः
लेखन के समय शरीर ही तो किसी के सामने होता है मस्तिष्क तो अपने खयालों में विचरण कर रहा
होता है। हैदराबाद-सिकन्दराबाद शहर वैसे तो भारत के आधुनिक शहर हैं पर मेरे प्रथम आगमन
(1990) से अब तक बहुत परिवर्तन आ गये हैं। शहर के परिवर्तन पर चर्चा करते मैं पुनः शर्मा सर
के खयालात से और अधिक परिचित होने के लिए पूछ बैठा- आपकी विचारधारा क्या है? क्या इसमें
बदलाव आया है?
इस पर वे थोड़ा सा असहज होते हुए बोले- गडबड़ सवाल है। मुझे क्या पता क्या है मेरी
विचारधारा? विचारधारा तो भइया ... जबरदस्ती खोजबीन करके रचनाओं में से निकाली जाती
है। रचनाओं को पढ़ेंगे तो कोई विचारधारा निकाल लेंगे। विचारधारा यदि किसी निश्चित फ्रेम का
नाम है तो मैं कहना चाहँूगा कि मेरी विचारधारा लोकतंत्र की विचारधारा है। मैं अपनी
वैचारिकता में लोकतंत्र का समर्थक हँू। मैं मनुष्य और उसकी मनुष्यता का पक्षधर हँू। और कोई खास
विचारधारा नहीं हैं। हाँ इतना जरूर मानता हँू कि कविता का काम मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने
के लिए संस्कारित करना अवश्य है। अब आप इसे किस विचारधारा का नाम देंगें, मैं नहीं जानता। 
मैं, जितना उनके विचारों से परिचित होता जा रहा था उतना ही अभिभूत सा होता जा रहा था
क्योंकि वे मुझे बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कहने वाले व्यक्ति लगे। मैंने आदमी और लेखक के
सम्बन्ध और जुड़ाव-अलगाव पर जाने के लिए कहा- क्या एक लेखक आम आदमी से अलग होता है,
क्योंकि एक लेखक बहुत कुछ लिखता है और आम इंसान उसे पढ़ता है, वह चाह कर भी लेखन नहीं कर
पाता? सपाट बयानी की शैली में वे फिर बोले। ''बिल्कुल नहीं। मैं अपने विद्यार्थी जीवन से ही
इस बात को घोर विरोधी रहा हँू कि किसी कवि या लेखक को विशिष्ट माना जाए। कवि या
लेखक भी आम आदमी है। विशिष्टता बस इतनी है कि उसे अभिव्यक्ति के जो उपकरण मिले हैं, उन्हें
वह अपने ढंग से इस्तेमाल करना जानता है। आम आदमी से अलग कोई वर्ग यदि आप लेखक का बनाते हैं
तो मैं समझता हँू कि वह लेखक के साथ ज्यादती होगी। वह आम होता है उसे आम ही रहने
दीजिए।'' 
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि किसी भी साहित्यिक कृति की रचना के दौरान रचना का कई
मानसिकताओं से गुजरता है। विचारों के गहन मंथन के बाद ही वह अपनी सोच को शब्दों में ढाल
पाता है। मेरे कुछ पूछने से पहले ही, मेरा यह कथन सुन वे स्वयं ही बोले- ''कविता लिखने के लिए
.....पता नहीं .......उसे लिखना कहना चाहिए या रचना कहना चाहिए। कविता लिखते समय
या रचते समय एक जैसी मानसिकता तो नहीं हो सकती। दरअसल हम किसी मानसिकता, किसी
मनोवेग, किसी मनोभाव, किसी विचार से आक्रांत होते हैं तो हम उसे व्यक्त करने या लिखने की
ओर प्रवृत्त होते हैं। एक कवि के रूप में, जब कोई मनःस्थिति या मनोदशा उद्दवेलित करती है मुझे,
तो मैं, कुछ क्षण के लिए, अपने आपको उस मनोवेग के भरोसे छोड़ देता हँू और कोशिश करता हँू कि
मेरे माध्यम से वह मनोवेग या मनोभाव या मनोदशा या जिसे आप मानसिकता कर रहे हैं या
विचार, अपने आपको इस तरह व्यक्त कर सके, कि सबसे पहले मुझे उससे संतोष हो कि जिस रूप में यह
विचार आया उस रूप में रचा जा सका है। 
ऋषभदेव सर के मैंने सातों कविता संग्रह पढ़े हुए थे और वैसे तो उनकी कविता में समाज के अधिकांश
सरोकारों की अभिव्यक्ति देखी जाती है, लेकिन राजनैतिक संचेतना का आधिक्य दिखाई देता है,
इसका कोई विशेष कारण अवश्य रहा होगा, यही सोच मैंने उनसे पूछा-सर आप राजनैतिकों,
राजनीति से कुछ ज्यादा नाराज से लगते हैं, कोई खास वजह है क्या ? ''देखिए यह जो
विचारधारा वाली बात आपने कही थी, वहीं यह बात जुड़ जाती है, कि मेरी विचारधारा अगर
निकालना ही हो जबरदस्ती करके, तो वह इतना भर है कि मेरे लिए साहित्य एक सामाजिक कार्य
और मानवीय जिम्मेदारी है। मेरी खातिर... रचना... कोई व्यक्तिगत क्रीड़ा नहीं है। है....एक
सीमा तक वह व्यक्तिगत क्रीड़ा, लीला हो सकती है, लेकिन चूंकि रचना किसी को संबोधित होती
है या किसी के लिए रची जाती है, उसे मैं अपने लिए नहीं रच रहा हँू। यदि मैं अपने लिए रच रहा
होता, तो कुछ भी हो सकता था। लेकिन मैं रच रहा हँू अपने किसी पाठक के लिए औ जब मैं अपने
किसी पाठक के लिए रच रहा हँू तो मैं और मेरा पाठक मिलकर समाज बनते हैं और इसलिए कविता
का मेरे लिए प्रमुख सरोकार या प्रमुख चिंता कविता की..... समाज है । मैंने पहले भी कहा कि
जैसा है समाज, उससे बेहतर समाज बनाने के लिए कवि कुछ कर सके तो यही कवि की मुक्ति होनी
चाहिए। अब इसमें.....आरंभ से ही मेरी यह मान्यता रही है कि मनुष्य .....यानि जिसे हम कह
रहे हैं सामाजिक मनुष्य, वह अनेक प्रकार की दुरभिसंधियों का शिकार है। सामाजिक, आर्थिक,
राजनैतिक कई प्रकार की हो सकती हैं। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भी हो सकती हैं। इन
दुरभिसंधियों के बीच यदि, हमें मनुष्य को बचाना है तो यह देखना पड़ेगा कि इनकी जड़ कहाँ है और
इसमें कोई शक नहीं कि यह बात गलत हो सकती है। मेरी कोई जिद इस पर नहीं, लेकिन मेरा
मानना है कि इन तमाम दुरभिसंधियों की जड़ में कहीं राजनीति है। तो राजनैतिक दुरभिसंधियां,
राजनैतिक षड्यंत्र; मनुष्य को सामान्य मनुष्य को, आम आदमी को ....गुलाम बनाए रखने के लिए
तरह-तरह की राजनैतिक दुरभिसंधियां पहली जिम्मेदार हैं। यही राजनीति समाज की शोषक
शक्तियों के साथ गठजोड़ कर लेती है। यही राजनैतिक आर्थिक जगत के साथ भी गठजोड़ कर लेती है।
यही राजनीति अपराधियों के साथ भी गठजोड़ कर लेती है। यही राजनीति अंतरराष्ट्रीय कूटनैतिक
शक्तियों के साथ भी गठजोड़ कर लेती है। यही राजीनति व्यापार, व्यवसाय, बाजार
सबसे.....सारी चीजें जो हैं, वे राजनीति से संचालित हो रही है। यानि सत्ता। राजनीति से
मेरा अभिप्राय है, सत्ता और उस पर काबिज रहने वाली शक्तियां और उसकी नीति। तो जिसके
हाथ में सत्ता है, जिसके पास प्रभुता है, वह जो प्रभुत्वहीन है, उसका शोषण, दोहन, दमन करने,
उसका बेवकूफ बनाने, उसका फायदा उठाने, उसे बेच डालने तक के तमाम तरह षड्यंत्र करता है। तो
प्रभुता की राजनीति जो है, आधिपत्य की राजनीति, वर्चस्व की राजनीति। चाहे वो परिवार में
हो, चाहे वह समाज में हो, चाहे वह किसी संस्था में हो, चाहे वह राष्ट्र व अंतरराष्ट्रीय संदर्भ
में हो। मेरी राय में राजनीति, वह सब प्रकार की दूसरी विषमताओं और विसंगतियों की जड़ है।
इसलिए आरंभ से ही मेरे लेखन में आपको राजनीति पर चोट दिखाई देती है; आप जिसे राजनैतिक
संचेतना कहते हैं। 
हम अध्ययन एवं अध्यापन से जुड़े लोग तो अभ्यस्त से हो चले हैं लेकिन एक आम इंसान की बात करें तो
वह साहित्य में आने वाले नित परिवर्तनों से पर्याप्त आक्रांत अवश्य रहता होगा, क्योंकि विधाओं
में परिवर्तन और उनके नए नाम व्यक्ति को सोचने के लिए विवश अवश्य करते होंगे। अब हिंदी
साहित्य का आधुनिक काल ही ले लिया जाय, खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था, तो मजबूरन
लोगों को उत्तरआधुनिक काल लाना पड़ा। मेरे विचार से हिंदी साहित्य के इतिहास के पुनःलेखन का
समय आ गया है क्योंकि नए रूप, नए विमर्शों के लिए भी जगह देनी होगी। वैसे परिवर्तन तो
प्रकृति का नियम है ही। 
मेरे इस प्रकार के कथन पर मुस्कुराते हुए ऋषभ सर बोले-'' आप स्वयं ही प्रश्न कर रहे हैं और उत्तर
भी स्वयं दे ही दे रहे हैं।'' मैंने कहा, सर, मैं अपनी नहीं साहित्य अध्ययन या अध्यापन से अलग
आम आदमी की चिंता की बात रहा हँू, वे आगे बोले- ''परिवर्तन आ रहे हैं। परिवर्तन आते रहते हैं।
परिवर्तन साहित्य की धारा में, हम विशेष रूप से यदि हिंदी के ही सम्बन्ध में ही बात करें,
विभिन्न कारणों से आते हैं। समाज, या जनता की चित्तवृत्ति के बदलाव, को ऐतिहासिक
परिवर्तनों का कारण माना जाता है। मैं इसका समर्थक हँू और इसका स्वागत करता हँू। देश,
दुनिया के साथ जितने ही हमारे संपर्क बढ़ते हैं, जितने ही हम खुलकर बाहर के समाजों, भाषाओं,
साहित्यों, संस्कृतियों के संपर्क में आते हैं, जितना ही हम अपने खोल से बाहर निकल करके बाहर के
हवा, पानी, मिट़टी, गंध, इन सबका बोध प्राप्त करते हैं, उतना ही हमारी चेतना में, हमारी
चित्तवृत्ति में बदलाव घटित होता है और उसी के अनुरूप कला और साहित्य में भी परिवर्तन होते
हैं। जितनी तेजी से दुनिया बदलती है उतनी तेजी से मानसिकताएं नहीं बदलतीं, उतनी तेजी से कवि
की संवेदना नहीं बदलती। कुछ चीजें या अधिकतर चीजें शाश्वत हैं। मनुष्य के स्वभाव में बहुत सारी
चीजें शाश्वत हैं। इसके बावजूद पूरा का पूरा परिवेश जो है वह बदलता रहता है इसलिए रचना में
भी परिवर्तन घटित होते हैं। स्वागत के योग्य हैं, मैं उनका स्वागत करता हँू। 
बदलते समय के साथ साहित्य के सरोकर भी बदले हैं। अब साहित्य में सदियों से पिछड़े दलितों,
स्त्रियों, आदिवासियों की आवाजें भी उठाई जा रही हैं। मैंने सर से मेरी आगामी संपादित पुस्तक
''किन्नर विमर्श' की चर्चा करनी चाही परंतु बीच में स्त्री विमर्श की चर्चा चल निकली मैंने
जानना चाहा कि राजेंद्र यादव, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा आदि के स्त्री विमर्श सम्बन्धी
विचारों से वे कहाँ तक सहमत हैं और वे स्वयं क्या सोचते हैं स्त्री विमर्श के सम्बन्ध में, तो उन्होंने
व्यक्ति विशेष की बात पर चर्चा न करना बेहतर बताते हुए कहा कि हर विमर्श के सम्बन्ध में अलग-
अलग लोगों के अलग-अलग विचार हो सकते हैं, जहाँ तक मेरे विचारों का सम्बन्ध है तो इतना ही
कहँूगा कि '' हजारों साल से, युगों से, स्त्री को समाज में निचले दर्जे पर रखा गया, दोयम
समझा गया। महान कहकर भी उसी से बलिदान मांगे गए, जो आज भी जारी हैं। स्त्री विमर्श का
अर्थ यदि स्त्री के मनुष्य होने के, सम्पूर्ण मनुष्य होने के, अधिकारों को बहाल करना है, जैसा कि
है भी, तो मैं स्त्री विमर्श का प्रबल पक्षधर हँू। इससे ज्यादा कुछ कहने की जरूरत है नहीं।'' 
स्त्री लेखन को लेकर एक बार 'राष्ट्रीय सहारा' में मैनेजर पांडेय, राजेंद्र यादव ओर निर्मला जैन
के बीच काफी वाद-विवाद और प्रतिवाद हुआ, खासकर राजेंद्र यादव के लिए स्त्री लेखन का मतलब
देह तक सीमित है। इस सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए चित्रा मुद्गल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा
था कि राजेंद्र जी की चेष्टा हमें अवाक् करती है कि यह स्त्री विमर्श को सही अर्थों में
परिभाषित करने का प्रयत्न है या उसकी आड़ में स्त्री देह को लेकर अपनी कंुठाओं की अभिव्यक्ति है-
यहाँ मुझे मल्लिका शेरावत और राजेंद्र यादव के स्त्री विमर्श में कोई विशेर्ष फर्क नजर नहीं
आता।'' ( श्याम सुशीलः वाङमय, साक्षात्कार विशेषांक, वर्ष 3, अंक 10-11, जुलाई -दिसंबर
2006) मैंने कहा, सर जहाँ शीर्षस्थ आलोचकों का यह हाल है वहाँ एक आम आदमी स्त्री और उससे
जुड़ी समस्याओं के बार में क्या खयाल रख सकता है। 
इस पर उन्होंने समझाने वाले अंदाज में कहना प्रारंभ किया- ''देखिए, इसे समझने की जरूरत है।
स्वतंत्रता देह की ही क्यों, सब प्रकार की स्वतंत्रता की मांग उचित है। देह की स्वतंत्रता, जब
हम स्त्री विमर्श के संदर्भ में, इसकी मांग करते हैं तो, इसका अर्थ यह है कि स्त्री को अपने
शरीर के ऊपर हक हासिल है- मेरा अपना शरीर है, इसे मुझसे कोई जबरदस्ती नहीं ले सकता। स्त्री
विमर्श के संदर्भ में स्त्री देह की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं है कि यह मेरा अपना शरीर है, इसे
मैं चाहे जैसे बेचूं , चाहे जैसे नष्ट करूं। नहीं, किसी को भी चाहे वह पुरुष हो चाहे स्त्री हो,
शरीर को बेचने का हक नहीं होना चाहिए। किसी को भी शरीर को अपमानित करने का हक नहीं
होना चाहिए। किसी को भी शरीर को अश्लील बनाकर प्रस्तुत करने का हक नहीं होना चाहिए।
हमारा शरीर, चाहे हम स्त्री हैं या पुरुष, प्रकृति की सुंदरतम रचना है और स्वतंत्र मनुष्य होने के
नाते हमें, अपने शरीर के ऊपर हक हासिल है, कोई हमारे शरीर को हमसे बलात ले नहीं सकता। जब
स्त्री स्वातंत्र्य की बात है, स्त्री के दैहिक स्वातंत्र्य की बात करते हैं तो हम यह कह रहे होते
है कि स्त्री के शरीर को उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई प्राप्त न कर सके। स्त्री का शरीर प्राप्त
करने के लिए अर्थात स्त्री से शरीर सुख प्राप्त करने के लिए उसकी सहमति अनिवार्य है। अरे!
रावण तक सीता को अपने रनिवास में नहीं ले जाता है, क्योंकि सीता राजी नहीं है। हम कहेंगे कि
रावण ने सीता को अपनी देह के ऊपर अधिकार दिया था। लेकिन कौरव द्रौपदी को उसकी देह पर
अधिकार नहीं दे रहे हैं, पूरी भरी सभा के भीतर उसे एक दासी के रूप में मानकर निर्वस्त्र किया
जा रहा है। दासी को भी क्यों निर्वस्त्र करने का किसी को हक हो? स्त्री की दैहिक स्वतंत्रता
को, काम सम्बन्धों की स्वतंत्रता के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। दूसरी बात, जो इसके साथ
जुड़ी हुई है, वह यह, क्या दैहिक स्वतंत्रता का यह अर्थ लिया जाय कि हम एक वैवाहिक सम्बन्ध
में या एक प्रेम सम्बन्ध में या किसी एक किसी भी प्रकार के स्त्री पुरुष सम्बन्ध में एक व्यक्ति के
साथ हैं, ऐसा होते हुए भी हम दूसरे व्यक्ति, तीसरे या अन्य व्यक्ति के साथ शारीरिक सम्बन्ध रख
सकते हैं। लोग यह भी कुतर्क देते हैं कि पुरुष ऐसा कर सकते हैं तो स्त्रियां भी ऐसा कर सकती हैं।
नहीं, मित्रता हो, प्रेम हो, विवाह हो, दाम्पत्य हो, हम जब किसी एक पुरुष या स्त्री के
साथ परस्पर यौन सम्बन्ध में होते हैं तो जितने समय तक उस सम्बन्ध में हैं, जब तक वह सम्बन्ध
जेनुइन है, वैध है तब तक हम एक दूसरे की इच्छाओं का सम्मान करें और एक दूसरे के प्रति ईमानदार
रहें। यह हमारी नैतिकता है और जिसे हम कहेंगे एक तरह से आध्यात्मिक मान्यता के साथ भी जुड़ती
है। इसे यौनशुचिता के साथ जोड़कर न देखें। मैं उसकी बात नहीं कर रहा हँू, उसके कारण तो स्त्री
का बड़ा शोषण हुआ है, मैं इसे इस रूप में कह रहा हँू कि स्त्री और पुरुष दोनों को एक दूसरे के
प्रति बफादार होने की आवश्यकता है। दोनों ही को, जबकि वे एक ऐसे काॅन्ट्रेक्ट में, विवाह के
रूप , एक ऐसे गठबंधन में, समझौते में शामिल है, जिसमें शरीर का सुख एक दूसरे तक सीमित हो चुका
है, तो इस सुख को उस व्यक्ति के रहते, इस वैध समझौते के रहने तक आप यदि कहीं और लेते या देते
हैं तो वह अवैध ही माना जाएगा।'' तीसरी बात मेरे विचार से यह है कि स्त्री का अपने बारे में
निर्णय का अधिकार सर्वोपरि आवश्यकता है- काम संबंध और संतानोत्पत्ति से लेकर निजी और
सामाजिक विषयों तक।
भारत में जातिवाद सर्वाधिक विवाद का विषय है इसलिए विमर्श साहित्य पर सवर्ण जाति के
लेखक, आलोचक अपने मनमाने ढंग से टिप्पणियाँ करते रहते हैं, इस पर ऋषभ सर के विचार जानने के
लिए मैंने उनसे कहा-''दलित विमर्श में भाषा प्रयोग पर लंबी बहस हुई है। आलोचकों के अनुसार
दलित साहित्य की भाषा साहित्य रचना के अनुकूल नहीं है। आपका क्या विचार है इस सम्बन्ध में? 
ऋषभ सर ने अपने विचारों को कुछ इस प्रकार विस्तार दिया-''मेरी मान्यता तो यह है कि
साहित्य के लिए जिस भाषा की जरूरत होती है वह किताबों में से नहीं आती। किताबों में से जब
साहित्य की भाषा आती है तो वह असहज हो जाता है। साहित्य की भाषा को सहज होना चाहिए
और यह सहज भाषा दलित के पास है, यह सहज भाषा स्त्री के पास भी है और यह सहज भाषा
आदिवासी के पास भी है। इस सहज भाषा का सम्मान करना..., आलोचकों को सीखना चाहिए और
यह सही है कि जिन वर्गों को या समुदायों को, हजारों हजार साल शिक्षा से वंचित रखा गया
हो, उनकी अभिव्यक्तियों को आप भाषा के धरातल पर शिक्षित लोगों की भाषा के साथ जोड़कर
देखें तो आपको वे पिछड़े लगेंगे, लेकिन यह जान लीजिए कि उनकी अभिव्यक्ति में उनकी अनुभूतियां,
उनके वास्तविक अनुभव पिरोए हुए हैं और इसलिए मैं इस बात के खिलाफ हँू कि हम यह कहें .....कि
स्त्री के पास उनकी भाषा नहीं, दलित के पास भाषा नहीं है या आदिवासियों के पास भाषा नहीं
है। क्यों लिखें हम आपकी भाषा में .......हम अपनी भाषा में कहेंगे ......जो भाषा हमने अपने
परिवेश से अर्जित की है। हमने अपनी भाषा, जो जीवन से आयत्त की है, हम उसे व्यक्त करेंगे।
आपको शिकायत वहाँ होनी चाहिए, जहाँ आपको लगे कुछ वैसा हो रहा है जिसे आपका समाज अभद्र
कह सकता है। देखिए गाली......मात्र एक ऐसी चीज है जिस पर आपको आपत्ति हो सकती है।
बाकी...तो आपके समाज में तमाम बदतमीजियां, तमाम तरह की अश्लीलता, अभद्रता सब भद्रता के
नाम पर प्रतिष्ठित हैं। आपको शिकायत हो सकती है कि कुछ पात्र गाली गलौज का इस्तेमाल क्यों
करते हैं, तो जो शोषित, दमित, वंचित व्यक्ति है गाली और व्यंग्य, उस कमजोर और हारे हुए
व्यक्ति के उपकरण हंै ....हथियार हैं। आपने उसे जीवन ही ऐसा दिया है कि वह गाली देगा। आप
उसके जीवन को सुधारिए, तो गाली अपने आप गायब हो जाएगी। तब वह आपको गाली नहीं देगा,
तब उसे गाली देगा जो चीज समाज विरोधी हो रही होगी। आज यदि आप उसके समुदाय या समाज
के विरोधी प्रतीत हो रहे हैं तो वह आपको गाली दे रहा है। इसीलिए आपको लग रहा है कि वह
आपको गाली दे रहा है। उसकी भाषा आक्रामक है तो इसीलिए आपको क्या कष्ट है? जो पिट रहा
है, जो तमाचा नहीं मार सकता है, जो बदले में हत्या नहीं कर सकता, अपने प्राण को रक्षा के
लिए जो हिंसा नहीं कर पा रहा है, वह अगर गाली दे रहा है तो मैं तो कहँूगा कि जैसे वैदिकी
हिंसा हिंसा न भवति। उसी तरह प्राण रक्षा के लिए, अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए, अपने
अधिकारों की रक्षा के लिए यदि आक्रामक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है तो वह वांछनीय
है। वह होना ही चाहिए। सारा का सारा साहित्य कक्षाओं में पढ़ाने के लिए नहीं लिखा जाता।
कक्षाओं में पढ़ाने के लिए छांट लीजिए जो आपको भद्र भाषा लगे। लेकिन अभिव्यक्ति के लिए हमारे
पास जो भदेस भण्ेिाति है, भाखा है हम उसी का प्रयोग करेंगे। दरअसल जो स्थापित लोग होते
हैं...यथास्थितिवादी, वे किसी भी नई आती हुई भाषा का विरोध किया ही करते हैं। आज हम
कहते हैं कि तुलसी की भाषा जो है वह इतनी परिमार्जित है....फलाना है...ढिकाना है, लेकिन
तुलसी को अपने जमाने में सफाई देनी पड़ रही है कि भैया यह भदेस, भणिति है, मुझे माफ कर देना,
मुझे अच्छी बातें अच्छे शब्दों में कहनी आती ही नहीं है।'' 
इस देश के आदि निवासी कहे जाने वाले आदिवासी बहुत सारी समस्याओं का शिकार हैं। विदित है
कि हर किसी के दिन फिरते हैं और यह कहावत चरितार्थ होने लगी है आदिवासी विमर्श के आगाज
के साथ ही। अन्य विमर्शों की तुलना यह विमर्श अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है, इस प्रकार
विचारों को प्रकट करते हुए उन्होंने कहा-''देखिए, जितने भी विमर्श हैं उन सब का आधार यही है
कि समाज, संस्कृति, सभ्यता सब चीजों की जो एककेंद्रीयता थी, उसके कारण बहुत सारी चीजें
हाशिए पर या परिधि पर धकेल दी गईं। आज हम बहुकंेद्रीयता की बात करते हैं। तो साहित्य में
बहुत से अलग केंद्र बन रहे हैं। स्त्री केंद्र बन रहा है, दलित केंद्र बन रहा है, अल्पसंख्यक केंद्र बन
रहा है। इसी तरह आदिवासी केंद्र भी बन रहा है तो स्वीकार्य है और बेहद जरूरी है कि
आदिवासियों के बीच में से, जनजातियों में से अधिक से अधिक लेखक सामने आएं। मैं तो कहँूगा कि उन्हें
अपनी बोलियों, या उनकी जैसी भी अभिव्यक्ति पद्धतियां है, उनका समावेश करते हुए खड़ी बोली
जिसे हिंदी कहा जा जाता है, उसमें रचनाएं करनी चाहिए। यहाँ मैं, जोड़ना चाहँूगा कि एक बहुत
बड़ी गड़बड़, पिछले डेढ़ सौ साल में हुई है.....हिंदी साहित्य में ....वह यह कि हमने हिंदी
साहित्य को एकबोलीय साहित्य बना दिया। हिंदी साहित्य का मतलब मात्र खड़ी बोली का
साहित्य, क्यों? जब हम यह कहते हैं कि हिंदी की पांच उपभाषाएं है, 17 बोलियां हैं, और भी
अनेक कई उपबोलियां हैं, अनेक शैलियां हैं जो अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग रूप में बोली जाती
है। तो उन-उन स्थानों के लोगों को आप उनकी बोलियांे में लिखने की स्वतंत्रता क्यों नहीं देते ?
आप खड़ी बोली में लिखे हुए को ही हिंदी साहित्य क्यों मानते हैं? आज क्या लोगों ने ब्रजभाषा में
लिखना, बोलना, पढ़ना छोड़ दिया है? और यदि ऐसा हुआ है तो इसके लिए आप दोषी हैं। आप
ब्रजभाषा को मार देंगें। लोगों को प्रेरित किया जाना कि लोग ब्रजभाषा में लिखें, प्रेरित किया
जाना चाहिए कि वे राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी में लिखें और इस सारे साहित्य को हिंदी का साहित्य
माना जाना चाहिए। यानि, जनजातियांे में रहने वाले लोग, आदिवासी लोग जिनकी अपनी
बोलियां हैं, भाषाएं है उन बोलियों में देवनागरी लिपि में लेखन करें और उसे हिंदी का लेखन माना
जाए, मैं यह प्रस्तावित करता हँू।'' 
दलित विमर्श और स्त्री विमर्श कुछ आलोचकों के निशाने पर ही रहते हैं और वे इनके बारे में भ्रामक
प्रचार करते हुए देखे जाते हैं, कुछ आलोचकों के मत में अब स्त्री विमर्श और दलित विमर्श धीमा पड़
गया है, आपकी क्या राय है? पूछने पर वे बहुत ही संजीदगी के साथ इस प्रश्न को टाल जाना
चाहते थे परंतु मेरे पुनः आग्रह करने पर बोले-''वैसे तो मैं इस पर कोई टिप्पणी देना उचित नहीं
समझता, फिर भी यदि आप जानना ही चाहते हैं तो मैं यही कहँूगा कि मेरा मानना है कि सबकी
अपनी आवाजें हैं। कभी कोई जोर की आवाज है तो सुनाई दे जाती है, कोई धीमी आवाज है तो नहीं
सुनाई देती। लेकिन यदि हम भारत और हिंदी साहित्य की ही बात करें तो आज भी स्त्रियों की
दशा में बिल्कुल भी कोई सुधार नहीं हुआ है। अधिसंख्य स्त्रियां आज भी, दोयम दर्जें का स्थान ही
झेल रही हैं या कोई स्थान ही नहीं है। इसलिए स्त्री विमर्श बेहद प्रासंगिक है- उसकी आवाजें और
जोर से उठनी चाहिए। यह हो गया है कि आपने कुछ महिलाओं को, कुछ महिला रचनाकारों को जरा
जोर-जोर से बोलने की छूट दे दी, अनेक कारणों से। लेकिन स्त्री विमर्श उन्हीं लेखिकाओं तक
सीमित नहीं हैं। स्त्रियां घर-घर में हैं और आटे, नमक और चीनी के बीच भी कविताएं लिख रही हैं,
साहित्य रच रही हैं, उन्हें तो अवसर ही नहीं मिला अभी तक; और आप कह रहे हैं कि स्त्री
विमर्श खत्म हो गया। यह साजिश है। स्त्री विमर्श तो अभी शुरू हुआ है। हुआ क्या है, कि दस
लोगों ने एक ही जैसी बातें कहीं, एक जैसी चीजें पेश कीं, तो हमें लगने लगा कि यह तो सब
दोहराव होने लगा है, लेकिन यदि दोहराव ही है तो क्या दर्द अप्रासंगिक हो गया? यदि रोज
हंटर पड़ रहा है मेरी कमर पर, तो मुझे रोज चीखने तो दीजिए। हिंदी में अभी तक 'प्रोवोक'
जैसी रचनाएं कहाँ आई। स्त्री विमर्श तो अभी शुरू हुआ है। दलित, की भी स्थिति यही है। दलितों
को अब समझ में आना शुरू हो गया है कि उनका एक वोट बैंक की तरह राजनीति ने पिछले दशकों में
बुरी तरह से दुरुपयोग किया है। लेकिन अभी उनके वे उद्देश्य पूरे नहीं हुए हैं जिसके लिए उन्होंने
अपने मुँह पर से पट्टियाँ उतारी थीं। अभी इस देश में से, वर्ण व्यवस्था का जहर समाप्त नहीं हुआ
है। अभी इस देश में जाति प्रथा और छूआछूत लोगों के मनों में से समाप्त नहीं हुआ। जब तक, एक भी
मन में स्त्री के प्रति भेदभाव की भावना, एक भी मन में जाति के आधार पर भेदभाव की भावना
हैं, यानि जब तक कि समाज में स़्त्री के रूप में जन्म लेने के कारण या वर्ण विशेष में जन्म लेने के
कारण किसी व्यक्ति को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है, तब तक मैं समझता हँू दलित विमर्श,
स्त्री विमर्श प्रासंगिक हैं। यह हो सकता है, दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का प्रथम उत्थान
एक बिंदु पर पहँुच कर शांत हो गया होगा, लेकिन अब नई पीढ़ी को आने दीजिए न। वह नए रंग के
साथ आएगी, नए तेवर के साथ आएगी। .... मैं समझता हँू कि स्त्री एवं दलित विमर्श को समाप्त
घोषित करने वाले लोग वस्तुतः स्त्री और दलित विरोधी और षड्यंत्रकारी हैं। विमर्श का उद्देश्य
अंत्तः उस वर्चस्व को तोड़ना है जो दलितेतर का वर्चस्व है, जो स्त्री से इतर का वर्चस्व है।
कहाँ आपने स्त्री को पूरी भागीदारी दी है? क्या सब जगह, सत्ता में स्त्री को पूरी भागीदारी
मिल गई? परिवार से लेकर देश दुनिया तक, उसे आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं। क्या दलितों को
अधिकार मिल गया। चार दलितों को मिल गया, बाकी जो 96 हैं, उनका क्या होगा। यह चार
जो हैं, यह बड़ी तेजी से ब्राह्मणवाद में शामिल होते जा रहे हैं। आज भी लोग धर्म की बात पर,
जाति की बात पर, पुरुष स्त्री के मुद्दे उसी तरह की मानव विरोधी बातें करतें हैं। जैसी पीढि़यों
से चली आ रही हैं। ऐसी स्थिति में स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श हो या अन्य विमर्श हों,
उनकी प्रासंगिकता है। हमें उनके नए उत्थान की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इतनी जल्दी उनके
समाप्त होने की घोषणा करना जल्दबाजी होगी, और जल्दबाजी में गलत निर्णय लिये जाते हैं।''
मेरे और सर के मध्य विभिन्न मुद़दों पर बातें चल ही रही थीं कि इस बीच मेरी बड़ी सुपुत्री का
काॅल आ गया। पांच मिनट के वार्तालाप में उसे पचास फरमाइशें मुझ बता दी थीं और मैं उससे वे सब
चीजें हैदराबाद से लाने का वादा भी कर चुका था। मन बड़ा अच्छा लग रहा था, क्योंकि तीन
दिन की सेमीनार में भागम-भाग के बाद सर भी आज आराम से बैठकर बातें कर पा रहे थे और मैं भी
अपने परिवार से लगभग 6 दिन से दूर था और व्यस्त्ता के कारण उनसे बातें नहीं कर पाया था।
अचानक ही चर्चा ने पारिवारिक सम्बन्धों की ओर रुख कर लिया। उन्होंने कहा, आप अपनी बेटियों
से कुछ ज्यादा ही स्नेह रखते हैं। मैंने कहा मैं दुनिया में सबसे ज्यादा स्नेह अपने पिताजी से रखता हँू
और उनके बाद मेरी बेटी से। मेरे पिताजी इस दुनिया से रुखसत हो चुके हैं परंतु सितंबर 2011 से आज
तक एक भी ऐसा दिन नहीं आया जिस दिन पिताजी की कमी मुझे न खली हो। असल में उनसे बड़ा
मेरा कोई मित्र हुआ ही नहीं जीवन में। उन्होंने जब तक वे रहे मुझे एक मित्र की तरह रखा। मैं उस
समय भी भावुक हो उठा। क्योंकि मेरे पिता की सबसे बड़ी इच्छा थी कि मैं अपने जीवन में कम से
कम पांच किताबें अवश्य लिखूं। यह उन्हीं का आशीर्वाद है कि आज उनके जाने के मात्र 3 वर्ष में ही
मैं 7 किताबें प्रकाशित करा पाया। आज वे होते तो बहुत खुश होते। कुछ देर बाद मैं अगले दिन आने
का कहकर सर के घर से बहन के घर चला गया। रात में फेसबुक खोला तो ऋषभदेव सर ने अपनी वाॅल
पर मेरे द्वारा ''व्यतिरेकी अध्ययन'' नामक पुस्तक उन्हें देते हुए खींची गई तस्वीर अपलोड की हुई
थी और मेरे बारे में एक टिप्पणी की थी कि-''विजेंद्र प्रताप सिंह एक पारिवारिक जीव हैं।'' न
जाने क्यों मुझे इस टिप्पणी से बहुत ही सुखद अनुभूति हुई। संभवतः इसलिए कि आज के परिवेश में जहाँ
कोई किसी को अपने घर बुलाना नहीं चाहता है,क्योंकि कब कौन किसे किस रूप में धोखा दे जाए,
पता नहीं। ऐसे में मेरे जैसा अजनबी जो सर से, पहली बार 2012 में मिला और उसके बाद 2013 में
और आज फिर मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' पर आधारित त्रिदिवसीय संगोष्ठी में- वह उनके घर
गया और एक भरोसेमंद छवि छोड़कर आ सका। 
अगले दिन ऋषभदेव सर के घर से खैरताबाद जाते समय मार्ग में पुनः मैं परिवार पर चर्चा निकाल
बैठा और जानना चाहा कि वे मानव जीवन में पारिवारिक मूल्यों को किस रूप में देखते हैं? इस बात
पर वे चुटकी लेते हुए बोले, लगता है, परिवार को ज्यादा ही मिस कर रहे हैं। मेरे स्वीकोराक्ति
में 'जी' कहने के पश्चात, उन्होंने बोलना शुरू किया-'' मूल्य का अर्थ ही है, वे नैतिक सिद्धांत
जो हमारे जीवन को मूल्यवान बनाते हैं और पारिवारिकता या परिवार तो हमारी वह पाठशाला
है, जो हमंे मनुष्य के रूप में जीना सिखाती है। पारिवारिक मूल्य के रूप में मैं तो सबसे बड़ा मूल्य
यह मानता हँू कि हम अपने से पहले अपने परिवार के सदस्यों के बारे में सोचें। जब हम कहते हैं कि
वसुधैव कुटंबकम, पूरी दुनिया कुटुंब है, पूरी दुनिया परिवार है तो उसका आधार यहीं से आता है।
परिवार कहने का अर्थ है कि हम प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से ऐसे सम्बन्ध निर्मित करें जो स्वार्थ
पर केंद्रित न हों, बल्कि परमार्थ पर केंद्रित हों। संघर्ष जो है वह व्यक्ति और परिवार का है।
हमें अपनी व्यक्ति के रूप में पहचान चाहिए और समाज या परिवार के प्रत्येक सदस्य को भी वह
पहचान चाहिए। हमें प्रत्येक सदस्य की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए। हमें एक दूसरे की पहचान
का आदर करना चाहिए। यह आदर करना हमें परिवार सिखाता है। परिवार ही हमें सिखाता है कि
ठीक है हमारे घर में....'दोपहर का भोजन' का दृश्य ही ले लीजिए.....यदि हमारे घर में खाने
के लिए सीमित पदार्थ है तो सब एक दूसरे के लिए उसे छोड़ रहे हैं....सब छीन कर नहीं खा रहे
हैं। तो यह एक दूसरे की चिंता करना, यह हमारी पूरी मनुष्यता का मूल पाठ है। यहाँ, हम उनकी
चिंता कर रहे हैं, जिनसे हमारा रक्त सम्बन्ध है। हम अपने रक्त संबंधियों या पारिवारिक संबधियों
की खातिर अपना स्वार्थ छोड़ रहे हैं। आगे इसका और बड़ा विस्तार हो सकता है। हम उनके लिए
भी अपने स्वार्थ छोड़ सकें जिनसे हमारा पारिवारिक सम्बन्ध नहीं है, बल्कि मानवीय सम्बन्ध है।
क्योंकि अंत्तः.....एक चीनी कहानी है -कि... एक बेल में बहुत सारे कद्दू लटक हुए हैं और वे सारे
अपने-अपने स्वायत्त अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। तब एक मोटा बुजुर्ग कद्दू उनसे कहता है कि जरा
अपनी चोटी पकड़कर देखो और जब वे चोटी पकड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि सबकी शिखाएं एक ही
बड़ी शिखा से जुड़ी हुई हैं। तो हमारा नाभिनाल सम्बन्ध अपनी मां और बच्चों तक से ही नहीं हैं।
हमारा रक्त सम्बन्ध ही सब कुछ नहीं है। हमारा मानवीय सम्बन्ध सारी धरती से है। ....बल्कि
हम तो और भी ऊंचा कह सकते हैं कि पूरे विश्व की प्रकृति समस्त संपदा, सब कुछ को हमारे यहाँ
तो जीवित माना गया है। इस सारी सृष्टि के हम भी हिस्सा हैं और उसी तरह पूरी सृष्टि के साथ
कौटुम्बिकता का अनुभव करें, तब यह होगा कि जब हम कहीं एक हरे पेड़ को मारा जाता हुआ देखेंगे,
तो हमें कष्ट होगा- अगर हम एक पशु के साथ हिंसा होते हुए देेखेंगे तो हमें कष्ट होगा।
पारिवारिकता का सम्बन्ध होने के कारण। क्योंकि उस पारिवारिकता में मैं और हम एक हो जाते
हैं। यह बात आध्यात्मिक जैसी लग सकती है लेकिन किसी भी संवेदनशील मनुष्य से, केवल कवि ही
क्यों, यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूरे जगत में व्याप्त उस एक स्रोत के साथ जुड़े, जिससे कि
हम सब निर्मित हैं, सब बने हैं, और यदि हम ऐसा अनुभव करते हैं, तो हम कहेंगे कि यह हमारे
पारिवारिक मूल्य का ही विकास है, औदात्य है। परिवार मूल्य जो है, यदि हम पारिवारिकता के
मूल्यों को सिकोड़ते चले जाएं तो हीनता की ओर जा सकते हैं। यदि हम इस पारिवारिक मूल्य का
विस्तार करें, इसे औदात्य प्रदान करें तो हम उससे बड़ा कोई सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य नहीं पाते
हैं। उलटा हो रहा है इसका समाज में, कि हम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए, अपने पारिवारिक
स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुनिया भर के साथ अन्याय, अत्याचार और एक प्रकार से .....जिसे
कहना चाहिए कि तमाम तरह के अपराध किए जा रहे हैं। ......पारिवारिक मूल्य को मूल्य के रूप
में न लेकर के हम पारिवारिक स्वार्थ में लिप्त हैं। हमें अपने परिवार के भविष्य की चिंता है, हमें
अपने बच्चे की चिंता है, हमें धरती की चिंता नहीं है। यह पारिवारिक मूल्य का पतन है। तो
हमारा अभीष्ट यह नहीं बल्कि पारिवारिक मूल्यों को औदात्य प्रदान करना है।''
'अंधेरे में' कविता और मुक्तिबोध पर अशोक बाजपेयी के विचारों की चर्चा करने के दौरान मैंने सर
से पुनः आलोचना के बारे में जानना चाहा कि आज के संदर्भों में क्या सोचते हैं ? तो वे बोले-
''बहुत बड़ा फलक है साहित्य आलोचना का। और यदि आलोचना का धर्म साहित्य को समझने में
पाठक की सहायता करना है , यदि रचनाकार और पाठक के मध्य सेतु निर्माण करने का है, तो मैं
तो 20वीं एवं 21वीं शताब्दी के हिंदी आलोचकों से संतुष्ट हँू। मैं, मतवैभिन्य का, मतभेद का पक्षधर
हँू। इसलिए यदि एक ही चीज के बारे अलग-अलग विचार आ रहे हैं और एक आलोचक को कोई रचना
श्रेष्ठ लगती है तो दूसरे को वही रचना सबसे हीन लगती है; तो इससे क्या हुआ। दोनों ने अपने
अपने ढंग से व्याख्या करके दी है। आप पाठक के रूप में विवेकशील हैं। आप अपना निर्णय लीजिए।
अनेक पाठों की गुंजाइश है। किसी भी आलोचक का पाठ अंतिम पाठक नहीं होता। क्योंकि जब
रचनाकार का पाठ ही अंतिम नहीं होता है तो किसी आलोचक का कैसे हो सकता है। यदि कबीर के
बारे में, एक पाठ रवींद्रनाथ ठाकुर का है। एक पाठ रामचंद्र शुक्ल का है तो एक पाठ हजारी
प्रसाद द्विवेदी का, और फिर एक पाठ पुरुषोत्तम अग्रवाल का हो सकता है या और भी किसी का
है तो इस दृष्टिभेद की, मतभेद की पूरी गुंजाइश लोकतंात्रिक पद्धति में है। यदि हमारा दृष्टिकोण
लोकतांत्रिक न हो और हम किसी एक पक्ष के समर्थक हों तो हमें लगेगा कि आलोचना हमारी बड़ी
गड़बड हो गई है। डाॅ. रामविलास शर्मा जो हैं 'अंधेरे में' के रचनाकार को सिजियोफ्रेनिक घोषित
करते हैं और दूसरी ओर नामवर सिंह 'अंधेरे में' को शताब्दी की सबसे श्रेष्ठ रचना घोषित करते हैं।
दोनों अपनी जगह सही हो सकते हैं। लेकिन दोनों ही खंड सत्य हैं। आप भी अपना एक खंड सत्य बना
लीजिए। या दोनों को मिलाकर आप भी अपना और एक सत्य बना लीजिए। हम तो अनेकांतबाद के
समर्थक हैं। आधुनिक भाषा में कहें तो हम तो विचारों में लोकतंत्र के समर्थक हैं। विचारों का
लोकतंत्र बड़ा जरूरी है। क्योंकि कट्टरता सबसे पहले विचारों में ही आती है इलिए विचारों का
लोकतंत्र बहुत जरूरी है। हाँ, फतबेबाजी से बचना चाहिए। जिन आलोचकों ने फतबेबाजियां की हैं वे
प्रशंसनीय नहीं हैं।''
मैं ऋषभदेव सर और मेरे मध्य हुए इस साहित्यिक सह पारिवारिक वार्तालाप को साक्षात्कार,
वार्तालाप की शक्ल में लिखने का मन बना चुका था परंतु मैं नहीं चाहता था कि सर को इस बात
का पता चले। संभवतः मेरे मन में यह था कि साक्षात्कार सुनने के बाद व्यक्ति कुछ संभल कर बोलने
लगता है। और दिनांक 30 मार्च 2015 मेरे हैदराबाद प्रवास का आखिरी दिन था, रात्रि 11.45
बजे दक्षिण एक्सप्रेस से मुझे रवाना होना था इसलिए मैं अपने मतलब की अधिकांश सामग्री को अपने
मस्तिष्क की हार्ड डिस्क में संजो लेना चाहता था। इसलिए मैंने उनसे उनकी पूर्व सेवा और वर्तमान
सेवा के सम्बन्ध में जानना चाहाँ तो वे बोले -''देखिए! इंटेलीजेंस ब्यूरो में, मैं 'संयोगवश' गया।
कभी मन में इच्छा थी कि प्रशासनिक सेवा में जाने का मौका मिले। परीक्षाएं वगैरह लिखीं, पूर्ण
सफलता नहीं मिली। बेरोजगारी के दौर में जगह-जगह अप्लाई करते हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो में भी
अप्लाई किया .....चले गये और विधिवत हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गये। खैर, वह एक अलग
बात है। हर व्यक्ति की अपनी मनोरचना, व्यक्त्तिव होता है। मुझे कुछ समय बाद....बहुत जल्दी
यह बात समझ में आ गई कि इंटेलीजेंस ब्यूरों की जो कार्य शैली है वह मेरे मनोनुकूल नहीं है और वहाँ
के परिवेश पर, वहाँ की कार्यशैली इत्यादि पर इससे अधिक टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। मैं
तो यही कहँूगा कि भई! सात वर्ष तक इंटेलीजेंस ब्यूरो ने मुझे दाना-पानी दिया। वह मेरी
अन्नदाता है। अनेक अनुभव दिए। राष्ट्रीयता और मनुष्यता की समझ का विकास किया। लेकिन वहाँ
एक बैचेनी मुझे रहती थी। इसलिए जब मेरा शोध कार्य पूरा हो गया, पीएचडी अवार्ड हो गई
तो, उस समय मैं जम्मू कश्मीर में नियुक्त था- मैंने मास्टरी खोजनी शुरू की। विज्ञापन देख करके
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में प्राध्यापक के लिए अप्लाई कर दिया और 15 मार्च 1990 को
मद्रास में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में हिंदी प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हो गया। पूरे
दक्षिण में काम करने का मौका मिला। मैं अपने कार्य से पूर्ण रूप से संतुष्ट हँू। मुझे इस बहाने
हिंदीतर क्षेत्र में हिंदी के लिए कुछ करने का सौभाग्य मिला, सुयोग मिला और बदले में काफी
सम्मान मिला....शायद इतना कि जितने के लिए मैं योग्य भी नहीं था। आज भी नहीं हँू। रही
बात कार्य शैली इत्यादि की, तो यहाँ स्नातकोत्तर स्तर पर अध्ययन एवं अध्यापन और एम.फिल.
पी.एच.डी. इत्यादि की जो शोध पद्धति है वह......एक तरह से कहना चाहिए कि एक समर्पण
भाव की मांग करती है। मैंने यथासंभव बिना किसी तरह की अपेक्षा किए पिछले 25 वर्षों में अपने
विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों पर ईमानदारी से काम किया। मैं अपने काम से भी और अपनी
उपलब्धियों से भी संतुष्ट हँू। मेरे प्राण मेरे छात्रों में बसतें हैं।
मैंने ऋषभदेव सर को बड़ी ही लगन और तन्यमता के साथ कार्य निष्पादित करते हुए देखा और यह
जानना चाहा कि अध्यापन, काव्य लेखन और आलोचना में आप किस प्रकार से सामंजस्य बिठाते हैं ?
इस पर शायद मेरी मंशा को समझते हुए हँस कर बोले- ''आलोचना तो अध्यापन का हिस्सा जैसा ही
है, मेरे लिए। कविता जो है उस पर इन दोनों का थोड़ा विपरीत प्रभाव पड़ा। फिर भी मैं इन
तीनों को एक ही मूल त्रिकोण की तीन भुजाएं मानता हूँ और सच तो यह है कि अध्यापन करते हुए
भी, शोध कराते हुए भी, समीक्षा-आलोचना लिखते लिखाते हुए भी, यदि कहीं मेरे भीतर थोड़ा भी
कवि है, तो वह कवि सक्रिय रहता है। इसका प्रभाव यह हुआ कि अलग से कविता लिखना कम हो
गया। बेचारा कवि जो है इन दोनों स्थानों पर सक्रिय रहने के कारण सो नहीं सकता। इसलिए
कविता लिखने के समय सो जाता है। वैसे सच बात तो यह है कि चीजों को दार्शनिक बनाने वाली
बात है अन्यथा मुझे तीनों में कोई विशेष अंतर्विरोध नहीं दीखता। यह मेरी अपनी अक्षमता है कि
मुझे इन 25 वर्षों में जितनी काव्य रचना करनी चाहिए थी, चूंकि, जो मेरी मूल संवेदना कवि की
संवेदना है, वह जिस रूप में पल्लवित, पुष्पित होनी चाहिए थी इतनी नहीं हो पाई है। छप गईं
...7 किताबें छप गईं। एक किताब के 2-2 अनुवाद भी हो गए। 'प्रेम बना रहे' के दो अनुवाद हुए
हैं। दोनों ही तेलेगु में। लेकिन कुल मिलाकर सन 1970 या उससे पहले से ....मैं तो विद्यार्थी
जीवन से ही लिख रहा हँू। यानि 45 वर्षाें से अधिक अवधि से। इतनी बड़ी अवधि में जितना मुझे
लिखना चाहिए था उतना नहीं लिख पाया। पर इस बात का संतोष है कि वह समय मैंने अपने ऐसे
शोधार्थियों को दिया, जो कई बार अपने नाम तक की सही वर्तनी या अर्थ को नहीं जानते थे।
ऐसे में कवि थोड़ा पिछड़ गया हो तो इसका मुझे मलाल नहीं। दूसरी सारी चीजें उस समय बहुत
छोटी लगती हैं जब किसी विद्यार्थी की आंखों में आपके लिए सम्मान का एक छोटा सा आंसू चमकता
हुआ, दिखाई देता है।'' 
मैंने ऋषभदेव सर के ब्लाॅग पर भाषा विश्लेषण सम्बन्धी कई लेख पढ़े और कई पुस्तकों में भाषा सम्बन्धी
टिप्पणियां भी देखीं। चूंकि मेरे भी अध्ययन का मूल केंद्र भाषाविज्ञान और भाषा शिक्षण ही रहा
है और वर्तमान में हिंदी साहित्य पढ़ा रहा हँू, अक्सर अन्य मित्रों के साथ चर्चा में मैंने पाया कि
भाषाविज्ञान वालों को हिंदी साहित्य वाले अलग खेमे का व्यक्ति मानते हैं और थोड़ी दूरी बनाए
रखते हैं। जब मैंने सर से कहा तो उन्होंने कहा -''देखिए! मैं भाषाविद वगैरह नहीं हँू। मैंने पहले ही
कहा कि मैं लेखक, कवि भी नहीं हँू। यहाँ आपने एक और विशेषण लगा दिया- भाषाविद। सच तो यह
है कि भाषा और उसके सर्जनात्मक रूप का ज्ञान मैं में अपने परिवार से पाया। मेरे पिता पंडित
चतुर्देव शास्त्री। कभी-कभी संस्कृत में कविता भी रचते थे और अपने समस्त वार्तालाप में वे बहुत
अच्छी लालित्यपूर्ण भाषा का प्रयोग करते थे। कभी-कभी वे शब्दों से खिलवाड़ भी करते थे। यह
सारी चीजें बचपन से शायद मुझे विरासत में मिल गई होंगी। इसलिए शायद मैं लेखन इत्यादि की ओर
गया। वे व्याकरण के विद्वान थे, सो कान में, बहुत सारे व्याकरण और भाषा के सूत्र, उनके और
उनके शिष्यों के वार्तालाप के समय, पड़े होंगे। एम.ए. करते समय भाषाविज्ञान का पेपर मेरा बहुत
कमजोर था। व्याकरण तो मैं आज भी दावे से नहीं कह सकता हँू कि मुझे आती है। जितनी एक
मातृभाषी को आती है उतनी ही आती है। लेकिन भाषा व्यवहार, जैसा मैंने कहा, और उसका
सर्जनात्मक प्रयोग, इसमें मेरी रुचि बहुत ज्यादा रही। और जब मद्रास से स्थानांतरण होकर के,
1995 में, मैं हैदराबाद आया और प्रोफसर दिलीप सिंह का सान्निध्य मुझे मिला तो उन्होंने भाषा
के प्रति मेरे इस रुझान या सनक को पहचाना और दिशा दी। मजे की बात यह है कि उन्होंने कभी
इस बात पर जोर नहीं दिया कि मैं भाषा विज्ञान और भाषा की सैद्धांतिकी पढ़ता फिरूं, बल्कि
मेरा जो अपना अध्ययन एवं सोच रहा उसे उन्होंने समाज भाषाविज्ञान और शैलीविज्ञान और जो
अधुनातन भाषा अध्ययन की पद्दतियाँ हैं, उनके साथ जोड़कर देखने का नया रुझान मुझमें पैदा किया।
और मैं, हर टैक्स्ट को, हर पाठ को, कविता, कहानी, उपन्यास यहाँ तक कि वार्तालाप, या
सड़क पर लिखे हुए विज्ञापन, किताबों, पत्रिकाओं से लेकर वस्तुओं पर लिखे हुए विज्ञापन, फिल्म
इत्यादि को, हर चीज को, भाषा व्यवहार की दृष्टि से देखने लेगा। इसका प्रभाव मेरे अध्यापन
पर और लेखन पर भी पड़ा, सृजनात्मक लेखन पर भी और समीक्षात्मक लेखन पर भी। बावजूद इसके मैं
भाषाविद नहीं हँू। रही बात यह कि भाषा और साहित्य के बीच की दूरी। यह कृत्रिम दूरी है।
हम पैदा कर लेते हैं इस प्रकार की दूरियां। यदि साहित्य भाषा का सर्वोत्तम प्रतिफलन है, यदि
साहित्यिक कृति मूलतः शाब्दिक कला है तो फिर यह सोचना कि भाषा और भाषा व्यवहार की
बारिकियों में गए बिना, साहित्य की बारिकियां समझ में आ सकती हैं, मुझे उचित नहीं लगता।
दरअसल, मैं तो यह कहना चाहँूगा कि यदि हमें राजनीति, समाज, संस्कृति, इतिहास, मिथक
इत्यादि इत्यादि को भी कृति में देखना है तो उसका रास्ता भी कृति की भाषा में से ही होकर
जाना चाहिए। यदि ऐसा होगा और ऐसा होता है तो हम आलोचना, समीक्षा और शोध के जिस रूप
को प्राप्त करंेगे वह वस्तुनिष्ठ स्वरूप होगा। तो मेरा बल, एक सर्जक के रूप में भी और एक
समीक्षक के रूप में भी, भाषा के सर्वोत्तम संयोजन को पहचानने पर है और यही वह बिंदु है जो
भाषाविज्ञान और साहित्य को जोड़ता है। 
हिंदी साहित्य जगत में स्वतंत्रता के बाद कई वाद आए, साहित्य ने कई धाराएं देखीं, यदि हम
कविता को ही लें तो इसमें उत्तरआधुनिक विमर्श तक कई परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं, ऐसे में
'तेेवरी काव्यांदोलन' अन्य धाराओं से किस प्रकार अलग एवं विशेष है? इसके उत्तर में ऋषभदेव सर ने
बड़ी ही रोचकता से तेवरी पर प्रकाश डालते हुए कहा-''तेवरी काव्यांदोलन जो है, यह हमने
1981 में आरंभ किया था और तेवरी शब्द जो है, यदि हम इसी पर विचार करें तो उत्तर मिल
जाता है। तेवरी के मूल में 'तेवर' शब्द है और 'तेवर' शब्द का प्रयोग एक ओर मुद्रा या
भावभंगिमा के लिए किया जाता है तो दूसरी ओर क्रोध, आक्रोश या गुस्से के लिए और ताप के लिए
भी किया जाता हैं। तेवरी काव्यांदोलन में, 1981 मे,ं जिसे आप एक तरह से कह सकते हैं इमरजेंसी के
बाद का काल और जनता पार्टी का जो खिचड़ी विप्लव था, उसके बाद की स्थितियां, जब कि
भारतीय लोकतंत्र जो है, वह बिखरा हुआ नजर आ रहा था, प्रेरक रहा। ऐसे समय में कुछ बातों को
लेकर, एक तो यही कि जैसा कि आरंभ में हमने कहा कि कवि कोई विशिष्ट और अलग जंतु नहीं होता
है,आम आदमी होता है- आम आदमी के असंतोष, आक्रोश विशेष रूप से सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक
विसंगतियों के प्रति आम आदमी के असंतोष और आक्रोश को व्यक्त करना, इसकी विषयवस्तु का रूप
था। उस समय यह चीजें तेज तर्रार लगती थीं, आगे चलकर पूरी की पूरी साहित्यिक धारा का
लक्ष्य ही आक्रोश और व्यंग्य हो गया। दूसरी बात शिल्प की बात थी। हम कविता में बात कर रहे
थे। और कविता में हम उस समय यह महसूस करते थे और आज भी, कि यदि हमें जनता की पीड़ा को
कहना है और जनता तक पहुँचाना है उसे, तो उसके लिए रचना का छंदोबद्ध होना, उसे स्मृति में
स्थापित करने के लिए, एक विशेष बल प्रदान करता है। इसलिए एक शिल्प विशेष को चुना गया जो
ग़ज़ल और गीत के शिल्प का संलयन करके, फ़यूजन करके, बनाया गया शिल्प था। जो लोग तेवरी को
ग़ज़ल कहना चाहते हैं, उनसे हमारा कहना है कि तेवरी का शिल्प बड़ी सीमा तक गीत का शिल्प
भी है, केवल ग़ज़ल का ही नहीं, ग़ज़ल की बहुत सारी शर्तोें को स्वीकार नहीं करता। ग़ज़ल की
सबसे बड़ी शर्त यह है कि ग़ज़ल में एकान्विति नहीं होती। गीत की सबसे बड़ी शर्त है कि उसमें
एकान्विति होती हैं। तेवरी की शर्त है कि पहले तेवर से अंतिम तेवर तक, एक भाव क्रमशः
उद्दीप्त होता चलता है और अंतिम तेवर तक आते-आते वह पूरी तरह से पूरी रचना का जो एकान्वित
प्रभाव पड़ना चाहिए उसे निष्पन्न करता है। वस्तुतः 'तेवरी' गीत और ग़ज़ल दोनों के शिल्प को
फ़्यूज करके नया शिल्प बनाने का प्रयास था। इसमें हम सफल भी हुए। हम कहना चाहेंगे कि हिंदी
ग़ज़ल के नाम पर, जो बहुत सारी रचनाएं आई हैं, उनमें ग़ज़ल की इस विशेषता को स्वीकार किया
गया है कि ग़ज़ल का हर शेर अलग-अलग होता है। एक शेर राजनीति का, हाँलांकि ग़ज़ल में
राजनीति तो पहले वर्जित थी, हिंदी ग़ज़ल ने उसे स्वीकार कर लिया, आधुनिक ग़ज़ल जो भी है।
एक शेर राजनीति का है तो दूसरा शेर शृंगार का है। इससे पाठक की एक मानसिकता नहीं बन
पाती है। जबकि तेवरी जो है राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक विसंगतियों को ही अपना कथ्य
बनाती है, इसलिए उसका एकान्वित प्रभाव होता है। इसलिए तमाम दूसरे आंदोलनों एवं विधाओं के
बीच, अपने आप में यह विशिष्ट है। बल्कि इसे हमने शिल्प मुक्ति का आंदोलन कहा, ग़ज़ल को उसके
शिल्प से मुक्त किया, गीत को भी उसके शिल्प से मुक्त किया। यह वस्तुतः शिल्प मुक्ति का आंदोलन
है।'' 
तेवरी कविता में भाषा प्रयोग एवं चयन पर प्रकाश डालते हुए वे धारा प्रवाह रूप से कहते गए,
जिसे मुझे लिखने में काफी समय लेकर लिखना पड़ा। भाषा के सम्बन्ध में उन्होंने स्पष्ट किया कि
''तेवरी का जो घोषणापत्र है उसमें बड़े स्पष्ट रूप से इस बात को कहा गया है, और हमें प्रसन्नता
इस बात की है कि हिंदी के, आज के समय के शीर्षस्थ भाषाचिंतकों एवं शैली-वैज्ञानिकों,
भाषावैाानिकों में परिगणित प्रोफेसर दिलीप सिंह ने बडे़ विस्तार से तेवरी के इस भाषा पक्ष पर
विचार किया। 'साहित्य कुंज' पर यह उपलब्ध भी है और उनकी ''कविता पाठ विमर्श'' नामक
पुस्तक में भी यह लेख है। सीधी सी बात यह है कि भाषा के बारे में हमारी मान्यता यह है कि
काव्यभाषा ऐसी होनी चाहिए, तेवरी के लिए आदर्श एवं आवश्यक काव्यभाषा, जो है वह ऐसी
होनी चाहिए कि वह बड़ी ललक से अपने पाठक की ओर बढ़े, न कि यह चाहे कि पाठक पहले एक
विशेष प्रकार की दीक्षा प्राप्त करे, तब मेरी रचना में आए और तब मैं उसकी समझ मैं आऊँगा। मेरी
रचना उसकी समझ में आनी चाहिए, यह मेरी, और मेरी रचना की, जिम्मेदारी है, पाठक की
जिम्मेदारी नहीं है। पाठक के लिए बस उस भाषा को जानना भर काफी होना चाहिए। इसलिए हम
आमफहम भाषा के पक्षधर हैं। हम, लोक संपदा, जो हमारी भाषाओं में है हमारी बोलियों में है,
उनके प्रयोग के पक्षधर हैं। और, सरलता का अर्थ सपाटता नहीं होता, यह ध्यान रहे। सरल होने
का अर्थ सपाट होना नहीं होता। अर्थ स्तर एक से अधिक होने चाहिए, होंगे, तभी वह
काव्यभाषा है। और उसके लिए, इसलिए लाक्षणिकता और व्यंजना चाहिए ही। तेवरी की भाषा में
सरल शब्दावली होते हुए, प्रतीकों और बिंबों के प्रयोग के साथ लाक्षणिकता और व्यंजनात्मकता
महत्वपूर्ण है। मुझे याद आता है, मेरी पुस्तक 'तरकश' की चर्चा करते हुए, हमारे समय के
प्रतिष्ठित हस्ताक्षर वेणुगोपाल, जो राजनैतिक कविता के उन्नायकों में से माने जाते हैं, ने
'स्वतंत्र वार्ता' में छपी समीक्षा में विशेष रूप से एक उक्ति दी थी, उन्होंने ध्यान दिलाया था,
कि, तेवरी मुख्यतः व्यंग्य की विधा है और व्यंजनाप्रधान है। इसलिए उसकी जो सरलता है वह इस
व्यंजना के साथ मिलकर के एक चोट देने वाली अभिव्यक्ति का रूप लेती है। उद्देश्य हमारा है -
''सिरफिरों को चोट देकर सिर उठाने का समय है''- प्रोफेसर देवराज की पंक्ति मुझे याद आई।
ऐसी भाषा जो सिरफिरों को चोट दे, जो सोए हुओं को चोट दे। इसलिए उसमें असंतोष, आक्रामकता
और जागरण यह सारी चीजें आ जाती हैं।'' 
तेवरी काव्यांदोलन के अन्य प्रमुख रचनाकारों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा -''सबसे महत्वपूर्ण
नाम हैं, प्रोफेसर देवराज का, जो तेवरी काव्यांदोलन के घोषणापत्र के लेखक हैं। उस समय इस
घोषणापत्र पर लगभग 50 युवा रचनाकारों ने हस्ताक्षर किए थे। अनेक लोग जुड़े, अलग-अलग स्थानों
पर लिख रहे हैं। बाद में उन सबका ट्रेक नहीं रखा जा सका। फिर भी बताऊं, ''कुदंनशील''
पत्रिका के चार-पांच विशेषांक तेवरी काव्यांदोलन को समर्पित निकले। 'सर्वप्रिय' पत्रिका, जो
चिरंजीत जी की थी, उसने तेवरी काव्यांदोलन को बड़े महत्व के साथ उभारा। 'हिंदुस्तान' में
संपादकीय टिप्पणी श्रदेंदु जी ने तेवरी काव्यांदोलन पर लिखी। रामपुर से प्रकाशित 'सहकारी
युग' ने तो पूरी बहस चलाई: हमारी पुस्तक 'तेवरी चर्चा' में वह शामिल है। तेवरी काव्यांदोलन
का जिक्र अवध नारायण मुदगल के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'सारिका' के अंकों में
भी हुआ। ''उन्नयन''नाम की पत्रिका श्रीप्रकाश मिश्र जी निकालते हैं, इलाहाबाद से, उन्होंने
भी तेवरी पर विशिष्ट सामग्री प्रकाशित की। अलीगढ़ से रमेश राज, हमारे मित्र हैं, उन्होंने
'तेवरी पक्ष' नाम से पत्र आरंभ किया। अनेक संकलनों का, समवेत भी और व्यक्तिगत भी, अलीगढ़ से
प्रकाशन हुआ है। ज्ञानेन्द्र साज, दर्शन बेताब। इसी तरह एक मित्र हमारे शिवकुमार थदानी थे
संभवतः मुजफ़फरपुर से, उन्होंने 'शिवनेत्र' नाम से पत्र निकाला। 'संवाद' नाम की एक पत्रिका ने
एक विशेषांक निकाला, सहारनुपुर से। हमारे एक मित्र हैं पवन कुमार पवन, उन्होंने 'मंथन' नाम से
एक समवेत तेवरी संकलन निकाला। 'अंतज्र्वाला' का नजीबाबाद से खूब मोटा सा विशेषांक निकला
था। लिस्ट तो काफी लंबी है सभी का नाम तो लिया जा सकता। फिर भी कुछ विशिष्ट मित्र हैं
उनका उल्लेख मैं अवश्य करना चाहँूगा, क्योंकि यह आरंभ से हमारे साथ रहे और अब दुनिया में नहीं
है। ब्रजपाल शौरमी जी, हरिराम चमचा, तुलसी नीलकंठ और रघुनाथ प्यासा, यह चारों ही अब
नहीं हैं, लेकिन आरंभ से ही तेवरी काव्यांदोलन के साथ दीवानों की तरह जुड़े। हम सब लोग जहाँ
भी पता चलता कि कवि सम्मेलन है, कंधे पर झोला लटकाए अपने से पहँुच जाते थे। इन मित्रों के
साथ मिलकर के हमने कई तेवरी सम्मेलन भी आयोजित किए। फिर, तेवरी अधिवेशन तो हुआ ही था,
जिसमें घोषणा पत्र जारी किया था। एक हमारे मित्र का मुझे और नाम याद आ रहा है, डाॅ.
दिनेश अंदाज़, उन्होंने 'रोटी' शीर्षक से एक सौ तेवरों वाली तेवरी लिखी थी जिसे हमने
'शतेवरी' नाम दिया था। मुझे उनकी कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं- ''बेकसी का मलाल रोटी
है/आज सबका सवाल रोटी है/जिंदगी के हँसी खयालों में, सबसे पहला खयाल रोटी है/दुश्मनी क्या है
टुकड़े रोटी के, दोस्ती क्या है दाल रोटी है।/कितने रंग है एक रोटी के, काली पीली है लाल
रोटी है।'' उन्हीं के साथी थे, जगदीश वेताब, कुमार अनिल। हाँ, कई महिला रचनाकार इस
आंदोलन से जुड़ीं। ऋचा जोशी, विनीता निर्झर, राजश्री रंजिता ने आंरभ के दिनों में खूब तेवरियां
रचीं और पढ़ीं।''
हम सुनते एवं पढ़ते तो कइयों को हैं पर कोई एक होता है जो हमें खासा पसंद होता है, आप किस
तेवरी रचनाकार के तेवरों को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं?, पूछने पर वे बोले-''यार, यह ठीक नहीं
है, सवाल। ऐसे सवाल नहीं करने चाहिए। मैं बचूँगा........ मैं कहँूगा जो नहीं रहे तीन या चार।
यानि अभी जो नाम मैंने लिए थे, जो दिवंगत तेवरीकार। दिवंगत उन चार तेवरीकारेां में से
ब्रजपाल शौरमी, मुझे अपने सबसे निकट लगते हैं। ''ईंट, छाले, पसीना और टोकरी, जिंदगी हो गई
पेट की नौकरी। मेरे महबूब के चार ही शौक हैं, हथकड़ी, बेडि़याँ, सींखचे कोठरी।'' और ''एक
वेटर से पूंछा है आजादी क्या, हाथ से छोड़कर तोड़ दी क्राकरी। लोग ढूंढा किए देश अखबार में,
देश करता फिरा हाॅकरी हाॅकरी। अब निराला नहीं और न इकबाल हैं, मंच पर रह गई जोकरी
जोकरी।'' ब्रजपाल सिंह शौरमी।''
आधुनिक कविता में तेवरी का क्या स्थान हो सकता है? पूछने पर वे संयत भाव से बोले ''देखिए, सच
बात तो यह है, कोई स्थान- स्थान के लिए हमने तेवरियां नहीं लिखीं। अपने समय की जरूरत लगी,
हमने तेवरी लिखी। आज भी हमें जरूरत लगती है, हम तेवरी रचते हैं। स्थान तय करना समय का काम
है। हमें स्थान प्राप्त करने की और स्थान सुरक्षित करने की कोई तमन्ना नहीं। नहीं चाहिए
इतिहास में स्थान। वर्तमान में अपने तई हमने, जो छोटी जिम्मेदारी हम निभा सकते थे, हमने
किया।'' 
आप देश की साहित्यिक राजनीति पर क्या कहना चाहेंगे। वे बड़े विनोदी अंदाज में बोले
-''शेम......शेम।'' 
काव्य लेखन में ही क्यों समस्त विधाओं में हर लेखक किसी न किसी को अपना आदर्श मानता है, आप
किस काव्यकार से सर्वाधिक प्रभावित हुए? पूछने पर वे बहुत कुछ स्मरण करने की मुद्रा में बोले
-'(हँसते हुए)......थोड़ा पीछे चलें। कालिदास, मुझे प्रिय रहे। बचपन में पढ़ा मैंने। मौके-बेमौके,
कालिदास की सौंदर्य चेतना मेरे कवि की सौंदर्य चेतना बन जाती है। श्रीहर्ष 'नैषधचरित्र मैंने
पढ़ा, विद्यार्थी जीवन में। कादंबरी, मैंने पढ़ी। तुलसी को बहुत पढ़ा, बार-बार पढ़ा, अभी भी
पढ़ता हँू। गीतगोंविद, जयदेव के गीत, कभी भी मुझे अपने भीतर बजते हुए सुनाई देते हैं। सुनाई देते
हैं जैसे मेरे रक्तकणों में बज रहे हैं यह सब। कबीर भी बजते हैं, मीरा भी बजती हैं। जयशंकर प्रसाद,
रामधारी सिंह दिनकर। कक्षा 10-12 में था, तो कामायनी और उर्वशी पढ़ी और एक खंडकाव्य
लिखा - 'वसुंधरा', जो वराह अवतार पर केंद्रित है। पांच सर्गों का एक छोटा खंडकाव्य है। उस
समय यह दोनों कवि प्रसाद और दिनकर मुझे अपने-अपने ढंग से घेरे हुए थे। इन दोनों के ही काव्य
मैंने खूब पढ़ाए हैं। निराला, फिर मैं कहंूगा कि जो सौंदर्यबोध है, उसे परिष्कृत करने में, एक तरफ
कालिदास और जयदेव ने मुझे आकर्षित किया है, उनका मुझपर प्रभाव है। दूसरी तरफ कबीर, तुलसी
और बिहारी भी हैं। लेकिन मेरी काव्य मानसिकता को विकसित करने में तुलसी के साथ जयशंकर
प्रसाद और निराला का बड़ा योग है। महादेवी को भी बड़े प्यार से पढ़ा। आह......(विभोर
होते हुए) दुष्यंत कुमार खूब पढ़े।'' 
अंत्तः जब मैंने जानना चाहा कि आप अपनी किसी रचना को सर्वाधिक उत्कृष्ट मानते हैं, तो वे
थोड़ा असंमजसी भाव से ठीक उसी तरह बोले जैसे कोई व्यक्ति पिता से पूछ ले कि उसे कौन सी
संतान सबसे ज्यादा प्रिय है। ''सोचा नहीं......सब अच्छी लगती हैं। फिर भी एक कविता है
'निवेदन', जो शायद दो संकलनों में है। ''जीवन बहुत बहुत छोटा है/ लंबी है तकरार/ और न
खींचो रार।'' या कई तेवरियां है जो मुझे बड़ी प्रिय हैं। ''जब नसों में पीढि़यों की हिम समाता
है।'' गीत ग़ज़लनुमा चीजें भी कई - ''बातों ही बातों में अरे यह क्या हुआ ऋषभ, खिलता हुआ
गुलाब अंगारा हुआ ऋषभ।'' मुश्किल है। एक को विशिष्ट कह पाना।'' 
इसके बाद मैं 28, 29 एवं 30 मार्च 2015 की बहुत सारी स्मृतियां लिए हुए, दक्षिण भारत हिंदी
प्रचार सभा, हैदराबाद से अपनी छोटी बहन के घर के लिए रवाना हुआ ताकि भांजे को उसकी मन
पसंद चीजें दिला सकूं और शाम को सही समय पर गाड़ी पकड़ सकूं। रास्ते भर मैं ऋषभदेव सर से हुईं
बातों को लैपटाॅप में टाइप करता रहा ताकि ज्यादा से ज्यादा चीजों को लिख सकूं, क्योंकि समय
बीतने पर कुछ ज्यादा चीजें छूटने का खतरा था मन में। प्रयास यही रहा है कि ज्यादा से ज्यादा
विचारों को शामिल किया जा सके पर कुछ छूट गया होगा तो अगले किसी मौके पर अवश्य प्रस्तुत
करूंगा।

- विजेंद्र प्रताप सिंह
सहायक प्रोफेसर (हिंदी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
जलेसर, एटा, उत्तर प्रदेश
फोन - 7500573935
ईमेल - अपबालेपदही4675/हउंपसण्बवउ
Lihat lebih banyak...

Comentários

Copyright © 2017 DADOSPDF Inc.